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हिंदू मुस्लिम नहीं, बचेगी इंसानियत

हिंदू मुस्लिम नहीं, बचेगी इंसानियत

इंसानियत की कीमत
गर्मियों की एक तपती दोपहर थी। शहर की गलियों में अफवाहों की गर्मी भी कम नहीं थी। हिंदू-मुस्लिम के नाम पर लोगों को बांटने की कोशिश की जा रही थी। सोशल मीडिया पर नफरत भरे संदेश फैलाए जा रहे थे। सियासतदान अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने में लगे थे। लेकिन इन सबसे बेखबर एक गली के नुक्कड़ पर, एक छोटी-सी चाय की दुकान थी, जिसे बुजुर्ग रहमत चाचा चलाते थे।
रहमत चाचा का दिल बहुत बड़ा था। उनके यहाँ न धर्म देखा जाता, न जाति। कोई भी आता, तो वे उसे मुस्कुराकर चाय पिलाते। लेकिन उस दिन माहौल कुछ अलग था। सामने वाली गली में एक झगड़ा होने की आवाज़ आ रही थी। भीड़ जमा थी, और दो गुट आमने-सामने थे—एक हिंदू और दूसरा मुस्लिम।

तभी एक ज़ोरदार आवाज़ आई—"अरे कोई मदद करो! मेरा बच्चा...!"
सबने मुड़कर देखा। एक औरत सड़क के किनारे बदहवास खड़ी थी। उसकी गोद में एक नन्हा बच्चा था, जो बेहोश था। उसका चेहरा पसीने से तर था, और साँसें हल्की हो रही थीं। वह मदद की गुहार लगा रही थी, लेकिन झगड़ रहे लोगों को उससे कोई मतलब नहीं था।

रहमत चाचा झटपट दौड़े। उन्होंने बच्चे को देखा और कहा, "इसे तुरंत अस्पताल ले जाना होगा!"

भीड़ में खड़े एक नौजवान रमेश ने कहा, "मैं अपनी बाइक लाता हूँ!"

"लेकिन ये तो हिंदू है!" किसी ने फुसफुसाकर कहा।

रमेश ने गुस्से से घूरा—"इंसानियत से बड़ा कोई धर्म नहीं!"

रहमत चाचा ने बच्चे को रमेश को सौंपा, और दोनों अस्पताल की तरफ भागे। रास्ते में रमेश ने पूछा, "ये बच्चा आपका रिश्तेदार है?"

रहमत चाचा बोले, "बेटा, जब कोई ज़रूरत में होता है, तो इंसानियत ही सबसे बड़ा रिश्ता होती है।"

अस्पताल पहुँचे तो डॉक्टर ने तुरंत बच्चे को देखा और कहा, "अच्छा किया, जो इसे वक्त पर ले आए। अब ये खतरे से बाहर है।"

रमेश और रहमत चाचा ने राहत की साँस ली। कुछ देर बाद उस औरत ने रोते हुए कहा, "आप दोनों ने मेरे बच्चे की जान बचा ली, मैं आपका ये अहसान कभी नहीं भूलूँगी।"

रहमत चाचा ने मुस्कुराकर कहा, "बेटी, एहसान नहीं, ये हमारा फर्ज़ था।"

उधर, जब ये खबर गली में पहुँची, तो जो लोग लड़ रहे थे, वे शर्मिंदा हो गए। उन्हें एहसास हुआ कि जिस नफरत के बीज वे बो रहे थे, वह बेकार थी। असली धर्म तो इंसानियत है, और इंसान की कीमत जाति या धर्म से बड़ी होती है।

उस दिन के बाद, वह गली बदल गई। हिंदू-मुस्लिम का भेद मिटने लगा। रहमत चाचा की चाय की दुकान फिर से गुलजार हो गई, लेकिन अब वहाँ सिर्फ चाय नहीं, भाईचारे की मिठास भी परोसी जाने लगी।

ऐसी मिसाल बनो सब कुछ यहीं रह जाएगा रहज़ाएंगी तो अच्छाइयां। आंख बंद होते ही न हिन्दू रहेगा न मुसलमान।


रिपोर्टर: राशिद चौधरी
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